छोटी दिवाली का ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व
एक समय की बात है, पृथ्वी पर नरकासुर नाम का एक अत्याचारी और क्रूर राजा हुआ करता था। नरकासुर ने अपनी शक्ति और सामर्थ्य से सभी देवताओं और ऋषियों पर भारी अत्याचार ढाया था। वह इतना शक्तिशाली और घमंडी था कि उसकी क्रूरता से त्रस्त सभी लोग भय के साये में जीने लगे थे। नरकासुर के अत्याचार की खबरें चारों ओर फैल चुकी थीं, और लोग उस समय को कोसते थे जब यह अत्याचारी राजा उनके बीच आया था।
नरकासुर के अत्याचार से दुखी होकर एक दिन एक प्रख्यात ऋषि ने उसे श्राप दे दिया, “नरकासुर! तेरी मृत्यु निश्चित है, और तेरा वध एक स्त्री के हाथों ही होगा।” यह श्राप नरकासुर के लिए एक भय का कारण बन गया। उसने सोचा कि यदि उसका वध एक स्त्री के हाथों होना तय है, तो वह सभी स्त्रियों को बंदी बना लेगा ताकि कोई भी उसके खिलाफ न उठ सके। इसी विचार से ग्रसित नरकासुर ने 16,000 स्त्रियों को बंदी बना लिया। वह उन पर अत्याचार करने लगा और उनके स्वाभिमान को ठेस पहुंचाने का कोई अवसर नहीं छोड़ता था।
इन स्त्रियों में से एक नरकासुर की अपनी पत्नी भी थी। नरकासुर की पत्नी भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त थीं। उन्होंने अपने पति के अत्याचार से दुखी होकर भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि वे उन्हें इस दुष्ट के चंगुल से मुक्ति दिलाएं और नरकासुर के अत्याचार का अंत करें।
भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी प्रार्थना सुनकर इस अत्याचारी का अंत करने का निश्चय किया। भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ इस अभियान में जाने का संकल्प किया। सत्यभामा ने भी इस अन्याय और अत्याचार का अंत करने का निश्चय किया और श्रीकृष्ण के साथ युद्ध में जाने के लिए तैयार हो गईं। श्रीकृष्ण और सत्यभामा ने मिलकर युद्ध की योजना बनाई, और श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य शक्ति का प्रयोग करते हुए नारायण चक्र तैयार किया।
श्रीकृष्ण और सत्यभामा रथ पर सवार होकर युद्धभूमि की ओर प्रस्थान किए, और रथ के सारथी बने महान योद्धा दरुक। युद्धभूमि पर पहुँचते ही नरकासुर ने अपनी विशाल सेना के साथ उनका सामना किया। उसकी सेना में अनेक राक्षस और योद्धा थे, जो नरकासुर के निर्देश पर पूरी तैयारी के साथ युद्ध में उतरे। श्रीकृष्ण और सत्यभामा के सामने नरकासुर के सेनापतियों ने भीषण युद्ध किया, परन्तु उनकी दिव्य शक्ति और साहस के आगे वे टिक नहीं सके।
श्रीकृष्ण ने अपने शस्त्रों से नरकासुर की सेना का संहार करना प्रारंभ किया। सत्यभामा भी धनुष-बाण लेकर उनके साथ खड़ी रहीं और एक-एक कर राक्षसों का वध करने लगीं। दोनों का संयम और सामर्थ्य देख नरकासुर को क्रोध आ गया। वह स्वयं मैदान में उतरा और श्रीकृष्ण पर सीधा प्रहार करने लगा। उसके प्रहार इतने शक्तिशाली थे कि युद्धभूमि में सभी योद्धा भयभीत हो उठे।
सत्यभामा का क्रोध और नरकासुर का अंत
जब नरकासुर ने श्रीकृष्ण पर जोरदार हमला किया, तो सत्यभामा का क्रोध चरम पर पहुँच गया। उन्हें याद आया कि ऋषि का श्राप था कि नरकासुर का अंत एक स्त्री के हाथों ही होगा। सत्यभामा ने इसे अपना कर्तव्य समझा और श्रीकृष्ण ने उन्हें नरकासुर के वध का अवसर दिया।
सत्यभामा ने भगवान श्रीकृष्ण से सुदर्शन चक्र लिया और अपनी पूरी शक्ति के साथ उसे नरकासुर की ओर चलाया। चक्र ने नरकासुर के सीने को भेद दिया और वह चीखते हुए धराशायी हो गया। इस प्रकार सत्यभामा ने उस अत्याचारी का अंत कर दिया और उसकी कैद में पड़ी सभी स्त्रियों को मुक्त कर दिया।
यह घटना अश्विन महीने की चतुर्दशी तिथि को हुई थी। नरकासुर के वध के साथ ही सभी बंदी स्त्रियाँ स्वतंत्र हो गईं और उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण और सत्यभामा का धन्यवाद किया। इसके बाद सभी नगरवासियों ने उस दिन को बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में मनाना शुरू किया। तभी से इस दिन को नरक चतुर्दशी के नाम से जाना जाता है और छोटी दिवाली के रूप में मनाया जाता है।
नरक चतुर्दशी का यह पर्व हमें यह संदेश देता है कि बुराई कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो, अंत में सच्चाई और धर्म की ही जीत होती है।